सभी ब्लॉगर साथियों को नमस्कार आज पेश है चर्चा मंच के बेहतरीन चर्चाकार आदरणीय रूपचंद शास्त्री जी एक पुरानी बेहतरीन रचना .......!
सम्बन्धों के चक्रव्यूह में,
सीख रहा हूँ दुनियादारी।
जब पारंगत हो जाऊँगा,
तब बन जाऊँगा व्यापारी।।
खुदगर्जी के महासिऩ्धु में,
कैसे सुथरा कहलाऊँगा?
पीने का पानी सागर से,
गागर में कैसे पाऊँगा?
बिना परिश्रम, बिना कर्म के,
क्या बन पाऊँगा अधिकारी।
जब पारंगत हो जाऊँगा,
तब बन जाऊँगा व्यापारी।।
जीवन के झंझावातों से,
कदम-कदम पर लड़ना होगा।
बाधाओं को दूर हटाकर,
पथ पर आगे बढ़ना होगा।
जीवन का अस्तित्व बचाना,
मेरे जीवन की लाचारी।
जब पारंगत हो जाऊँगा,
तब बन जाऊँगा व्यापारी।।
माँ ने जन्म दिया है मुझको
बापू ने चलना बतलाया।
जन्मभूमि ने मेरे मन में,
देशप्रेम का भाव जगाया।
अपने पथदर्शक गुरुओं का,
सदा रहूँगा मैं आभारी।
जब पारंगत हो जाऊँगा,
तब बन जाऊँगा व्यापारी।।
@ राज चौहान
बहुत सुंदर रचना,,,
ReplyDeleterecent post...: अपने साये में जीने दो.
बहुत सार्थक और प्रेरक रचना 1
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना आज दुबारा पढ़ी उतनी ही अच्छी लगी साझा करने के लिए हार्दिक आभार
ReplyDeleteलाजवाब रचना है ! वाह !
ReplyDeletewah.....bahot achche.
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