Sunday, September 21, 2014

रिश्तों को घर दिखलाओ - कुँअर बेचैन

सभी साथियों को मेरा नमस्कार आप सभी के समक्ष पुन: उपस्थित हूँ कुँअर बेचैन जी की रचना...... रिश्तों को घर दिखलाओ के साथ उम्मीद है आप सभी को पसंद आयेगी.......!!

माँ की साँस
पिता की खाँसी
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

छोड़ चेतना को
जड़ता तक
आना जीवन का
पत्थर में परिवर्तित पानी
मन के आँगन का-
यात्रा तो है; किंतु सही अभियान नहीं।
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

संबंधों को
पढ़ती है
केवल व्यापारिकता
बंद कोठरी से बोली
शुभचिंतक भाव-लता-
'रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।'
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं ।

 लेखक परिचय - कुँअर बेचैन 


13 comments:

  1. कुंवर जी की बहुत ही प्रभावी रचना ...
    आभार इसके प्रकाशन का ...

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  2. मन को प्रभावित करती भावपूर्ण सुन्दर रचना |

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  3. भावपुर्ण रचना...

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  4. यात्रा तो है; किंतु सही अभियान नहीं।
    सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

    चलता तो है जीव पथिक पर -

    मंजिल का अब भान नहीं है

    सुन्दर रचना है कुसुमेश जी की।

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  5. 'रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।'
    सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं । सुन्दर रचना

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  8. बदलते परिवेश में संबन्धों के प्रति आए परिवर्तन का बहुत ही प्रभावशाली प्रस्तुति। "सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं" ये अकेली पक्ति जाने कितनी पक्तियों की बात यूँ कह गुजरती है। बहुत-बहुत धन्यवाद इस रचना को प्रस्तुत करने लिए और कुंवर बेचैन जी को हार्दिक बधाई भी।

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  9. bahut sundar ......bahut acchha laga bechain jee ko padhna

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  10. बेचैन जी की रचना को साझा करने के लिए धन्यवाद.

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  11. भागदौड की जिन्दगी हमसे बहुत कुछ छीन लेती है ....
    उम्दा रचना पढवाने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद सर जी


    आखिर आपके ब्लॉग तक आना हो ही गया......अच्छा ब्लॉग है.

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  12. Spice Money Login Says thank You.
    9curry Says thank You So Much.
    amcallinone Says thank You very much for best content. i really like your website.

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