Tuesday, September 15, 2015

एक सन्नाटा बुनता हूँ...... अज्ञेय

सभी साथियों को मेरा नमस्कार आप सभी के समक्ष पुन: उपस्थित हूँ अज्ञेय जी की रचना...एक सन्नाटा बुनता हूँ के साथ उम्मीद है आप सभी को पसंद आयेगी.......!!

पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ।
उसी के लिए स्वर-तार चुनता हूँ।
ताना : ताना मज़बूत चाहिए : कहाँ से मिलेगा?
पर कोई है जो उसे बदल देगा,
जो उसे रसों में बोर कर रंजित करेगा, तभी तो वह खिलेगा।
मैं एक गाढ़े का तार उठाता हूँ :
मैं तो मरण से बँधा हूँ; पर किसी के-और इसी तार के सहारे
काल से पार पाता हूँ।
फिर बाना : पर रंग क्या मेरी पसन्द के हैं?
अभिप्राय भी क्या मेरे छन्द के हैं?
पाता हूँ कि मेरा मन ही तो गिर्री है, डोरा है;
इधर से उधर, उधर से इधर; हाथ मेरा काम करता है
नक्शा किसी और का उभरता है।
यों बुन जाता है जाल सन्नाटे का
और मुझ में कुछ है कि उस से घिर जाता हूँ।
सच मानिए, मैं नहीं है वह
क्यों कि मैं जब पहचानता हूँ तब
अपने को उस जाल के बाहर पाता हूँ।
फिर कुछ बँधता है जो मैं न हूँ पर मेरा है,
वही कल्पक है।
जिस का कहा भीतर कहीं सुनता हूँ :
‘तो तू क्या कवि है? क्यों और शब्द जोड़ना चाहता है?
कविता तो यह रखी है।’
हाँ तो। वही मेरी सखी है, मेरी सगी है।
जिस के लिए फिर
दूसरा सन्नाटा बुनता हूँ।


 लेखक परिचय - सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"

Sunday, September 21, 2014

रिश्तों को घर दिखलाओ - कुँअर बेचैन

सभी साथियों को मेरा नमस्कार आप सभी के समक्ष पुन: उपस्थित हूँ कुँअर बेचैन जी की रचना...... रिश्तों को घर दिखलाओ के साथ उम्मीद है आप सभी को पसंद आयेगी.......!!

माँ की साँस
पिता की खाँसी
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

छोड़ चेतना को
जड़ता तक
आना जीवन का
पत्थर में परिवर्तित पानी
मन के आँगन का-
यात्रा तो है; किंतु सही अभियान नहीं।
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

संबंधों को
पढ़ती है
केवल व्यापारिकता
बंद कोठरी से बोली
शुभचिंतक भाव-लता-
'रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।'
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं ।

 लेखक परिचय - कुँअर बेचैन 


Tuesday, February 25, 2014

एक बूंद -- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से,
थी अभी एक बूंद कुछ आगे बढ़ी,
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी...?



देव! मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूंगी या मिलूंगी धूल में?
या जलूंगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूंगी या कमल के फूल में...?


बह गई उस काल एक ऐसी हवा,
वह समुन्दर ओर आई अनमनी,
एक सुन्दर सीप का मुंह था खुला,
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी...


लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते,
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर,
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें,
बूंद लौं कुछ और ही देता है कर...!!



लेखक परिचय -अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' 



Friday, December 6, 2013

....... पहला प्यार :))


ज़िंदगी का पहला प्यार 
कौन भूलता  है
ये  पहली  बार होता  है  

जब कोई किसी को
खुद से बढ़कर 

चाहता है
उसकी पसंद उसकी ख्वाहिश 

में खुद को भूल जाता है
होता है इतना 

खूबसूरत पहला प्यार 
तो न जाने
क्यों अक्सर अधूरा रह जाता  है .....!!!


-- राज चौहान 


Thursday, October 17, 2013

......... दरिंदा !!

 सभी साथियों को मेरा नमस्कार आप सभी के समक्ष पुन: उपस्थित हूँ प्रसिद्ध कवि भवानीप्रसाद मिश्र जी की रचना...... दरिंदा के के साथ उम्मीद है आप सभी को पसंद आयेगी.......!!

दरिंदा
आदमी की आवाज़ में
बोला

स्वागत में मैंने
अपना दरवाज़ा
खोला

और दरवाज़ा
खोलते ही समझा
कि देर हो गई

मानवता
थोडी बहुत जितनी भी थी
ढेर हो गई !

- - भवानीप्रसाद मिश्र



Tuesday, August 13, 2013

...........सूनी साँझ

आप सभी साथियों को मेरा सादर नमस्कार काफी दिनों से व्यस्त होने के कारण ब्लॉगजगत को समय नहीं दे पा रहा हूँ पर अब आप सभी के समक्ष पुन: उपस्थित हूँ प्रसिद्ध कवि शिवमंगल सिंह सुमन जी की सुंदर रचना सूनी साँझ के के साथ उम्मीद है आप सभी को पसंद आयेगी.......!!

 ( चित्र - गूगल से साभार )

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

पेड खडे फैलाए बाँहें
लौट रहे घर को चरवाहे
यह गोधुली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

कुलबुल कुलबुल नीड-नीड में
चहचह चहचह मीड-मीड में
धुन अलबेली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

जागी-जागी सोई-सोई
पास पडी है खोई-खोई
निशा लजीली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

ऊँचे स्वर से गाते निर्झर
उमडी धारा, जैसी मुझपर-
बीती झेली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

यह कैसी होनी-अनहोनी
पुतली-पुतली आँख मिचौनी
खुलकर खेली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।


@  शिवमंगल सिंह सुमन

Sunday, July 21, 2013

........ ऐ दोस्त :)


तुमसे दूरी का एहसास जब सताने  लगा ,
तेरे साथ गुज़रा हर लम्हा याद आने लगा  !!
जब भी तुम्हे भूलने की कोशिश की ,
ऐ दोस्त तू दिल के और पास आने लगा  !!



@ राज चौहान