Sunday, September 21, 2014

रिश्तों को घर दिखलाओ - कुँअर बेचैन

सभी साथियों को मेरा नमस्कार आप सभी के समक्ष पुन: उपस्थित हूँ कुँअर बेचैन जी की रचना...... रिश्तों को घर दिखलाओ के साथ उम्मीद है आप सभी को पसंद आयेगी.......!!

माँ की साँस
पिता की खाँसी
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

छोड़ चेतना को
जड़ता तक
आना जीवन का
पत्थर में परिवर्तित पानी
मन के आँगन का-
यात्रा तो है; किंतु सही अभियान नहीं।
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

संबंधों को
पढ़ती है
केवल व्यापारिकता
बंद कोठरी से बोली
शुभचिंतक भाव-लता-
'रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।'
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं ।

 लेखक परिचय - कुँअर बेचैन